भारत के राष्ट्रपति की शक्तियाँ, कर्तव्य और कार्यभार (Powers and Duties of Indian President)

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भारत के राष्ट्रपति की शक्तियाँ, कर्तव्य और कार्यभार (Powers and Duties of Indian President)

Overview

इस लेख में हम UPSC परीक्षा से सम्बंधित, लोक प्रशासन (Public Administration) के एक महत्पूर्ण विषय पर प्रकाश डालेंगे - भारत के राष्ट्रपति की शक्तियाँ, कर्तव्य और कार्यभार (Powers and Duties of Indian President), in Hindi

राष्ट्रपति का कार्यकाल (Terms of Office)

अनुच्छेद 56: उस तारीख से पांच साल जब वह अपने कार्यालय में प्रवेश करते हैं।

कार्यालय की शर्तें (Conditions of Office)

अनुच्छेद 59:

  • राज्य विधानमंडल की संसद के सदस्य नहीं होंगे।
  • लाभ का कोई अन्य पद धारण नहीं करेंगे।
  • संसद द्वारा निर्धारित राष्ट्रपति की परिलब्धियां (Emoluments): रु. 5 लाख/माह वेतन (President’s Emoluments & Pension Act / राष्ट्रपति की परिलब्धियां और पेंशन अधिनियम, 1951 के तहत)।
  • परिलब्धियों को अहित में परिवर्तित नहीं किया जा सकता।

कार्यालय में रिक्ति

  • मृत्यु: उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है।
  • त्यागपत्र: उपराष्ट्रपति को संबोधित होता है (जिसे लोकसभा के स्पीकरों को तुरंत सूचित करना होता है)| तदोपरांत उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है।
  • चुनाव रद्द होने पर: उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है।
  • कार्यकाल की समाप्ति: राष्ट्रपति जारी रहता है, जब तक नया राष्ट्रपति नहीं चुन लिया जाता|
  • महाभियोग: उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है।
  • अस्थायी रिक्ति: यह राष्ट्रपति का विशेषाधिकार होता है। उदाहरण के तौर पर, राजेंद्र प्रसाद ने राधाकृष्णन को दो अवसरों पर कार्य करने के लिए कहा - जब वह अक्षम थे, और एक बार जब वह एक लंबी यात्रा के लिए USSR में थे।

महाभियोग

अनुच्छेद 61:

  • महाभियोग प्रस्ताव को संसद का कोई भी सदन प्रस्तावित कर सकता है।
  • कम से कम 1/4 सदस्यों (सदस्यों की कुल संख्या का) द्वारा हस्ताक्षरित, 14 दिनों का नोटिस राष्ट्रपति को दिया जाता है।
  • सदन की कुल सदस्यता के 2/3 भाग से संकल्प पारित होता है।
  • दूसरा सदन जांच गृह बन जाता है, जो राष्ट्रपति को रक्षा का अवसर प्रदान करता है।
  • समान बहुमत से दूसरे सदन से भी पारित होना चाहिए, यानि 2/3 सदस्यों द्वारा।

शक्तियां और कर्तव्य

  • राज्य के औपचारिक प्रमुख (Ceremonial head of state)।

  • संवैधानिक सलाहकार, शासन पर सामान्य निगरानी रखते है - यह उन्हें एक तरह से सरकार का सलाहकार बनाता है।

अनुच्छेद 53:

  • खंड (1): संघ की कार्यपालिका शक्ति (Executive power) राष्ट्रपति में निहित है, जिसका प्रयोग उनके द्वारा संविधान के प्रावधानों के अनुसार या तो सीधे या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से किया जा सकता है।
  • खंड (3): इस अनुच्छेद में कुछ भी संसद को, राष्ट्रपति के अलावा, अन्य प्राधिकारियों को कानून द्वारा कोई कार्यभार देने से नहीं रोकेगा।
  • कार्यपालिका शक्ति: सरकार को चलाने की शक्ति - पर राष्ट्रपति को कुछ शक्तियाँ नहीं दी गयी हैं। क्यूँकि विधायिका (Legislature) और न्यायिक (Judicial) शक्तियों को सरकारी शक्ति (government power) के दायरे से बाहर रखा गया है।

राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति: अनुच्छेद 74

इस वाद-विवाद की शुरुआत प्रथम राष्ट्रपति ने 1960 में भारतीय विधि संस्थान (Indian Law Institute) में अपने भाषण में की थी। मोटे तौर पर इस मुद्दे पर विद्वानों के तीन विचार हैं:

  • राष्ट्रपति अंग्रेजी क्राउन की तरह एक संवैधानिक प्रमुख (constitutional head) अधिक है - ग्रानविले ऑस्टिन, अलेक्जेंड्रोविक्ज़ और एम.सी. सीतलवाड़ (Granville Austin, Alexandrowicz and M.C. Setalvad)।
  • संविधान का शाब्दिक दृष्टिकोण: राष्ट्रपति सिर्फ दिखावे का प्रधान (figure head) नहीं है| उनकी कुछ शक्तियाँ वास्तव में सुपरमिनिस्ट्रियल हैं - एलन ग्लेडहिल, केएम मुंशी (Alan Gledhil, K. M. Munshi)।
  • बीच की स्तिथि (अधिकतर विद्वानों का विचार): हालाँकि राष्ट्रपति एक संवैधानिक प्रमुख (constitutional head) है, उसके पास संविधान के संरक्षक के रूप में शक्तियों का एक 'अनिर्दिष्ट भण्डार (unspecified reserve)' है। उन्हें देश के लोगों की सेवा करनी है।

न्यायपालिका के विचार:

  • राम जवाया (Ram Jawaya) बनाम पंजाब राज्य (1955): सुप्रीम कोर्ट ने माना कि राष्ट्रपति एक औपचारिक और संवैधानिक प्रमुख है।
  • यूएन राव (UN Rao) बनाम इंदिरा गांधी (1971): लोकसभा के विघटन के बाद भी, CoMs केयर टेकर प्रारूप में मौजूद रहते हैं, ताकि CoMs की सहायता और सलाह के बिना राष्ट्रपति अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सके।

राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति का अनुमान लगाने में अनुच्छेद 53, 74 और 75 के प्रावधानों का विशेष उल्लेख किया जाना चाहिए। ये हैं:

  • संघ की कार्यकारी शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी, और इस संविधान (अनुच्छेद 53) के अनुसार उनके द्वारा या तो सीधे या उनके अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से इसका प्रयोग किया जाएगा।
  • राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए प्रधान मंत्री के साथ एक मंत्रिपरिषद (Council of Ministers, COMs) होगी, और राष्ट्रपति उनकी सलाह के अनुसार ही कार्य करेगा (अनुच्छेद 74)।
  • मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होगी (अनुच्छेद 75)। यह प्रावधान सरकार की संसदीय प्रणाली की नींव है।

सलाह की बाध्यकारी प्रकृति का संवैधानिक साक्ष्य:

  • अनुच्छेद 74 (1) में उल्लिखित 'सहायता और सलाह' को आदेश नहीं माना जा सकता है। फिर भी दी गई सलाह फ़ालतू नहीं हो सकती, क्योंकि संविधान COM/PM को कोई अन्य कार्य नहीं सौंपता है।
  • अनुच्छेद 361: राष्ट्रपति को प्रदान की गई उन्मुक्तियों (Immunities) में, उनके कार्यालय के कर्तव्यों के अनुसार किए गए कार्यों के लिए न्यायिक कार्रवाई से उन्मुक्ति शामिल है। इसलिए वह अपने पद के कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान किए गए किसी भी कार्य के लिए किसी भी न्यायालय में व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं है।
  • अनुच्छेद 78 (a): यह मांग करता है कि PM, CoMs के सभी निर्णयों को राष्ट्रपति को सूचित करें। यह इंगित करता है कि PM और CoMs केवल सलाहकार निकाय नहीं हैं, बल्कि निर्णय लेने वाले निकाय हैं। इसलिए, उनकी सलाह बाध्यकारी होनी चाहिए।

42वें संशोधन अधिनियम (1976) और 44वें संशोधन अधिनियम (1978) द्वारा वाद-विवाद का निपटारा:

  • 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 ने राष्ट्रपति को, प्रधान मंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद की सलाह से बाध्य कर दिया।
  • 1978 के 44वें संविधान संशोधन अधिनियम ने राष्ट्रपति को ऐसी सलाह को मंत्रिपरिषद के पुनर्विचार के लिए वापस भेजने के लिए अधिकृत किया। हालांकि, पुनर्विचार के बाद दी गयी सलाह बाध्यकारी होगी।




राष्ट्रपति के स्थितिजन्य विवेकाधिकार

हालांकि राष्ट्रपति के पास कोई संवैधानिक विवेकाधिकार (constitutional discretion) नहीं है, लेकिन उनके पास कुछ स्थितिजन्य विवेकाधिकार (situational discretion) हैं। जिन क्षेत्रों में राष्ट्रपति COM से स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकते हैं, वो निम्नलिखित हैं:

त्रिशंकु लोकसभा में प्रधानमंत्री चुनना

राष्ट्रपति की भूमिका स्थिर संसदीय सरकार प्रदान करना है (उनकी भूमिका के इस पहलू ने गठबंधन युग के उद्भव के मद्देनजर बढ़ती प्रासंगिकता ग्रहण की थी)।

इससे सम्बंधित पिछले राष्ट्रपतियों के कार्य:

  • 1979 (चरण सिंह की नियुक्ति और संजीव रेड्डी द्वारा जगजीवन राम को सरकार बनाने के अवसर से वंचित करना)।
  • 1989 (आर. वेंकटरमण ने वी.पी. सिंह को नियुक्त किया)
  • 1990 (आर वेंकटरमन ने चंद्रशेखर को नियुक्त किया)
  • 1991 (आर वेंकटरमन ने नरसिम्बा राव को नियुक्त किया)
  • 1996 (एस.डी. शर्मा ने ए.बी. वाजपेयी को नियुक्त किया)
  • 1998 (के.आर. नारायणन ने ए.बी. वाजपेयी को नियुक्त किया)
  • 1999 (ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने ए.बी. वाजपेयी को नियुक्त किया)
  • 2004 (ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने मनमोहन सिंह को नियुक्त किया)
  • 2009 (प्रतिभा पाटिल ने मनमोहन सिंह को नियुक्त किया)

त्रिशंकु लोकसभा (hung Lok Sabha) के मद्देनजर राष्ट्रपति द्वारा पालन किए जाने वाले सिद्धांत:

  • अविश्वास प्रस्ताव में सरकार की हार होने पर नेता प्रतिपक्ष को आमंत्रित करें।
  • चुनाव से पहले बने गठबंधन के नेता को आमंत्रित करें।
  • सबसे बड़ी पार्टी के नेता को दूसरों के समर्थन (समर्थन पत्र) के साथ आमंत्रित करें।
  • चुनाव के बाद बने गठबंधन के नेता को आमंत्रित करें (आखिरी मौका दिया गया क्योंकि ऐसा गठबंधन वैचारिक रूपांतरण के आधार पर नहीं बल्कि पूरी तरह से सत्ता हथियाने के उद्देश्य से बनता है)।

इसके अलावा, राष्ट्रपति के कई अन्य स्थितिजन्य विवेकाधिकार हैं, जैसे कि:

  • पुनर्विचार के लिए COM को सलाह लौटाना।
  • अनुच्छेद 78 के तहत सूचना का चयन।
  • किसी विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस संसद में भेजना (निलंबन वीटो/suspensive veto)।
  • COM की बर्खास्तगी, जब वह लोकसभा के विश्वास को साबित नहीं कर सकती।
  • बहुमत खो चुके और लोकसभा को भंग करने की मांग कर रहे प्रधान मंत्री की सलाह को स्वीकार न करना।
  • सांसदों को हटाना (चुनाव आयोग की सलाह पर), PSC सदस्य को हटाना (Supreme Court/उच्चतम न्यायालय की सलाह पर)

असंवैधानिक सलाह का मामला

संशोधित अनुच्छेद 74(1) की उपयोगिता: राष्ट्रपति द्वारा अनौपचारिक दबाव

  • के.आर. नारायणन: उत्तर प्रदेश (1997) और बिहार (1998) में अनुच्छेद 356 लागू करने की सलाह को लौटा दिया।
  • ज्ञानी जैल सिंह (1886): पोटल बिल (Potal Bill) के संबंध में आचरण। (पॉकेट वीटो/Pocket veto किया)
  • एपीजे अब्दुल कलाम: ऑफिस ऑफ प्रॉफिट बिल, 2006.

इस प्रकार, यह मान लेना गलत होगा कि राष्ट्रपति ने सिर्फ रबर स्टैंप के रूप में व्यवहार किया है।

ऐसा प्रतीत होता है, अंततः, राष्ट्रपति की भूमिका तीन मोर्चों पर निश्चित हो गई है।

  • राज्य के औपचारिक प्रमुख (ceremonial head of state) के रूप में।
  • एक संवैधानिक सलाहकार (constitutional advisor) के रूप में, सामान्य निगरानी रखते हुए भारत के शासन में सलाहकार/भागीदार बनते हैं।
  • स्थिर संसदीय सरकार प्रदान करने के लिए (विशेष रूप से गठबंधन युग के उद्भव के संदर्भ में)

इसके अलावा, 1950-2022 के कार्यकाल ने निम्नलिखित सिद्धांतों को स्थापित किया है: -

  1. राष्ट्रपति सीमित तरीके से सरकारी बिलों, नियुक्तियों और नीति प्रस्तावों पर सवाल उठाने के लिए अपने निर्णय का प्रयोग करने के हकदार हैं।
  2. सीमा के भीतर राष्ट्रपति राज्य के मामलों पर टिप्पणी कर सकते हैं। सरकार की आलोचना मौन होनी चाहिए, और सोती सरकार को जगाने की प्रकृति की होनी चाहिए।
  3. राष्ट्रपति को निजी तौर पर PM को चेतावनी देने का अधिकार है।
  4. राष्ट्रपति के जानने का अधिकार पूर्णरूपेण है, इसको चुनौती नहीं दी जा सकती|
  5. विपक्षी नेताओं की राष्टपति से मिलने की प्रथा अब स्थापित हो गई है। वह कोई टिप्पणी नहीं करते हैं, लेकिन PM के खिलाफ दर्ज विरोध को उनतक पहुंचाते हैं।
  6. सरकार को बर्खास्त करने की शक्तियों का प्रयोग चरम आधारों को छोड़कर नहीं किया जा सकता है। 1987 में जैल सिंह के इरादों की सार्वभौमिक आलोचना हुई थी। इसलिए, PM और CM के लिए क्रमशः पाकिस्तान संविधान के अनुच्छेद 91 (5) और 130 (5) की तर्ज पर एक स्पष्ट प्रावधान शामिल किया जाना चाहिए, जो कहता है कि PM और CM, राज्य के मुखिया की रजामंदी से पद धारण करते हैं, लेकिन राज्य के मुखिया उनको तब तक पद से हटा नहीं सकता जब तक कि वह संतुष्ट न हो कि PM / CM ने सदन के बहुमत को खो दिया है (जिस स्थिति में वह विधायिका का एक विशेष सत्र बुलाएगा)।




राष्ट्रपति की शक्तियाँ

प्रशासनिक शक्तियाँ

उनका कोई वास्तविक प्रशासनिक कार्य नहीं है|

  • संघ की सारी कार्रवाई उन्हीं के नाम पर की जाती है।
  • सभी अनुबंध/आश्वासन उन्हीं के नाम पर किए जाते हैं।
  • संघ के सभी अधिकारी उसकी खुशी के दौरान (during his pleasure) कार्यालय का आनंद लेते हैं।
  • सूचना का अधिकार (अनुच्छेद 78)

अनुच्छेद 78 के तहत तीन अधिकार:

  • अनुच्छेद 78 (a): प्रधान मंत्री, संघ के मामलों के प्रशासन और कानून के प्रस्तावों से संबंधित मंत्रिपरिषद के सभी निर्णयों को राष्ट्रपति को सूचित करेंगे;
  • अनुच्छेद 78 (b): प्रधान मंत्री, संघ के मामलों के प्रशासन और कानून के प्रस्तावों से संबंधित ऐसी जानकारी प्रस्तुत करेंगे जो राष्ट्रपति मांगे; तथा
  • अनुच्छेद 78 (c) : यदि राष्ट्रपति ऐसा चाहता है, तो प्रधान मंत्री किसी भी ऐसे मामले को मंत्रिपरिषद के विचार के लिए प्रस्तुत करेंगे, जिस पर किसी मंत्री द्वारा निर्णय लिया गया है, लेकिन जिस पर परिषद द्वारा विचार नहीं किया गया है।

अनुच्छेद 78 पर बहस 1987 से तेज हो गई जब इंडियन एक्सप्रेस (Indian Express) ने जैल सिंह द्वारा राजीव को लिखे गए एक पत्र का पाठ प्रकाशित किया, जिसमें राष्ट्रपति जैल सिंह ने संसद में PM के बयान की सत्यता को चुनौती दी थी कि वह राष्ट्रपति को राष्ट्रीय हित के महत्वपूर्ण मुद्दों पर जानकारी देते रहे हैं।

संसदीय लोकतंत्र की प्रकृति: अनुच्छेद 78 के तहत राष्ट्रपति की शक्तियों के समर्थक उन्हें सूचना मांगने के लिए अपने COMs से स्वतंत्र भूमिका देते हैं। दूसरी ओर यह माना जाता है कि अनुच्छेद 78 को अनुच्छेद 74 जैसे अन्य प्रावधानों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है, और यह तय करना COMs का विशेषाधिकार है कि राष्ट्रपति को किस प्रकार की जानकारी दी जा सकती है। इसपर अभी तक कोई आम सहमति नहीं है।

बहस के दो पहलू:

  • क्या राष्ट्रपति के अनुच्छेद 78 के तहत जानकारी लेने का अधिकार निरंकुश है, यानी क्या अनुच्छेद 78 अलग से पढ़ा जाना चाहिए, या इसे अनुच्छेद 74 के साथ पढ़ा जाना चाहिए?
  • क्या यह सरकार के कार्यकारी निर्णय लेने की शक्ति को प्रभावित कर सकता है?/ क्या अनुच्छेद 78 राष्ट्रपति को कार्यकारी-शक्ति (executive power) प्रदान करता है?
  • कार्यकारी-शक्ति (executive power) का अर्थ सरकार के निर्णयों को प्रभावित करने की शक्ति होगा। संविधान के तहत राष्ट्रपति के लिए ऐसी कोई प्रत्यक्ष शक्ति नहीं है। यद्यपि वह केवल अप्रत्यक्ष रूप से नीति की सामग्री को प्रभावित कर सकता है (यदि राष्ट्रपति जानकारी मांगता है, और मीडिया को इसकी खबर लग जाती है, तो इसे सभी के ध्यान में लाया जा सकता है, और सरकार पर नीति बनाने से पहले ही दवाब डाला जा सकता है), लेकिन वह निर्णय की प्रक्रिया को सीधे प्रभावित कर सकता है। यह उचित भी है - राष्ट्रपति आखिरकार विधान मंडल (legislature) का एक हिस्सा है, जो देश की सर्वोच्च नीति बनाने वाली संस्था है।

इसके अलावा 'सामूहिक जिम्मेदारी (collective responsibility)' संसदीय सरकार का आधार है। यह राष्ट्रपति अनुच्छेद 78 (c) को लागू करके सुनिश्चित कर सकता है। अनुच्छेद 78 (c) यह सुनिश्चित करता है कि कार्यकारी कार्रवाई सामूहिक जिम्मेदारी पर आधारित हो।

सेना की ताकत (Military Power)

  • राष्ट्रपति, सेना का सुप्रीम कमांडर होता है|
  • वह युद्ध या शांति की घोषणा करते हैं|

राजनयिक शक्तियां (Diplomatic Powers)

  • राज्य के प्रमुख (Head of state), भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  • विदेशों में भारतीय मिशनों की नियुक्ति करते हैं।
  • विदेश से आये राजनयिक प्रतिनिधियों का स्वागत करते हैं।
  • वार्ताएं करते हैं और संधियों पर हस्ताक्षर करते हैं।

विधायी शक्तियां (Legislative Powers)

भारतीय संसदीय लोकतंत्र की प्रकृति: कार्यकारी (excecutive), विधायी (legislative) का एक हिस्सा है, क्योंकि CoMs विधान मंडल से ही आते हैं, और राष्ट्रपति भी विधान मंडल का ही हिस्सा हैं| इसलिए, यह कहा जा सकता है कि जहाँ तक कार्यकारी (excecutive) और विधायी (legislative) के संबंधों की बात आती है, तो शक्तियों का पृथक्करण (separation of powers) अधूरा है। राष्ट्रपति की भूमिका के बिना संसदीय प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकती।

संसद का हिस्सा

राष्ट्रपति, संसद का हिस्सा हैं, यह अनुच्छेद 7 (A) से साफ़ हो जाता है:

  • दोनों सदनों को बुलाने की शक्ति (यह संविधान सभा में कहा गया था कि दोनों सदनों को बुलाने की शक्ति लोकसभा के अध्यक्ष या राज्य सभा के अध्यक्ष के पास होनी चाहिए, क्यूंकि राष्ट्रपति अपनी शक्तियों का दुर्भावनापूर्ण प्रयोग कर सकते हैं, और सदनों को न बुलाने का निर्णय कर सकते हैं।)
  • सत्रावसान (Prorogue) और भंग (Dissolve) करने की शक्तियां (केवल लोकसभा को)
  • उद्घाटन भाषण (हर साल पहले सत्र के प्रारंभ में और आम चुनाव के बाद पहला सत्र) - अनुच्छेद 87

नामित करने की शक्ति (Power to Nominate)

  • राज्यसभा के 12 सदस्य - अनुच्छेद 80 (अनुसूचित जाति, साहित्य और समाज सेवा)
  • एंग्लो इंडियन कम्युनिटी के 2 सदस्यों का लोकसभा में नामांकन (अपर्याप्त प्रतिनिधित्व होने की स्थिति में)

संसद में रिपोर्ट रखना

UPSC, वित्त आयोग, AFS, पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट (अनुच्छेद 340), NCSC (अनुच्छेद 338), NCST (अनुच्छेद 338 A)।

कुछ विधानों के लिए राष्ट्रपति की अग्रिम मंजूरी आवश्यक है

  • नए राज्यों के निर्माण के लिए
  • धन बिल (Money bills) और वित्तीय बिल वर्ग I (Financial bills class I) के लिए
  • उन टैक्स को प्रभावित करने वाले बिल जिनमें राज्यों की दिलचस्पी है
  • व्यापार की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने वाले राज्य विधेयक

विधान को सहमति देना या और वीटो करना

वीटो (Veto): यह शक्ति आम तौर पर राज्य के प्रमुखों को जल्दबाजी में बने और गलत कानून (या असंवैधानिक उपाय) को रोकने के लिए दी जाती है|

अनुच्छेद - 111: राष्ट्रपति निम्नलिखित में से कुछ भी कर सकता है:

  1. विधान को सहमति दे सकते हैं
  2. विधान को रोक सकते हैं
  3. विधान को वापस भेज सकते हैं

आमतौर पर वीटो शक्तियां चार प्रकार की होती हैं: -

  • पूर्ण वीटो / Absolute veto
  • निरोधात्मक वीटो / Suspensive veto (साधारण बहुमत द्वारा अधिरोहित/overridden की जा सकती है)
  • क्वाल वीटो / Qual veto (विशेष बहुमत से अधिरोहित/overridden की जा सकती है)
  • पॉकेट वीटो / Pocket veto

भारतीय राष्ट्रपति की वीटो शक्तियों इस प्रकार हैं:

  1. CoM की सलाह से पूर्ण वीटो: आम तौर पर जब सरकार परिवर्तन होता है, उदा. पेप्सू विनियोग विधेयक (PEPSU Appropriation Bill), 1954, सांसदों के वेतन, भत्ते और पेंशन (संशोधन) विधेयक, 1991 (Allowances and Pensions of MPs)।
  2. पॉकेट वीटो: भारतीय डाकघर (संशोधन) विधेयक, 1986 [जी. जैल सिंह]
  3. सस्पेंसिव वीटो: ऑफिस ऑफ प्रॉफिट बिल (2006) [एपीजे अब्दुल कलाम]

राज्य विधान की अस्वीकृति (Disallowance of State Legislation)

  • राज्यपालों को राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयकों को आरक्षित करने की शक्ति (अनुच्छेद 200)
  • अनुच्छेद 201: राष्ट्रपति इस प्रकार आरक्षित विधेयक को स्वीकार या अस्वीकार कर सकते हैं, यदि यह धन विधेयक (money bill) है। वह राज्य के कानून को पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकते हैं (छह महीने के भीतर पुनर्विचार करना होगा), या स्वीकार / अस्वीकार कर सकते हैं। यदि राज्य द्वारा इसे फिर से पारित किया जाता है, तो भी राष्ट्रपति को इसके लिए सहमति देने की आवश्यकता नहीं होती है।
सरकारिया आयोग की टिप्पणियां (Sarkaria Commission)
  • बिलों को अनावश्यक रूप और कारणों से रोकने से बचना चाहिए।
  • राष्ट्रपति को ऐसे विधेयक का चार महीने के भीतर निपटान करना चाहिए।

अध्यादेश बनाने की शक्ति (अनुच्छेद 123)

यह भारत सरकार अधिनियम (Government of India Act), 1935 का अवशेष है|

पर इसकी भी 4 सीमाएं हैं:

  • समानांतर या समन्वय शक्ति नहीं: दोनों सदनों के सत्र में होने पर बनाया गया कोई अध्यादेश (ordinance) अमान्य होगा। इस प्रकार, राष्ट्रपति की अध्यादेश द्वारा कानून बनाने की शक्ति, कानून की समानांतर शक्ति नहीं है।

  • उनकी अध्यादेश बनाने की शक्ति, संसद की कानून बनाने की शक्तियों जितनी ही व्यापक है, अवधि को छोड़कर। इसके दो निहितार्थ हैं: (a) कोई अध्यादेश केवल उन विषयों पर जारी किया जा सकता है, जिन विषयों पर संसद कानून बना सकती है। (b) कोई अध्यादेश, संसद के किसी अधिनियम की तरह, संवैधानिक सीमा के अधीन है। इसलिए, कोई अध्यादेश किसी भी मौलिक अधिकार को कम या समाप्त नहीं कर सकता है।

  • COM की सलाह पर प्रयोग किया जाना: वह एक अध्यादेश तभी बना सकता है जब वह संतुष्ट हो कि ऐसी परिस्थितियाँ मौजूद हैं जो उसके लिए तत्काल कार्रवाई करना आवश्यक बनाती हैं। आमतौर पर राष्ट्रपति की संतुष्टि अदालतों की जांच से परे होगी, क्योंकि यह उन परिस्थितियों को देखते हुए होगी जिनके लिए प्रख्यापन (promulgation) की आवश्यकता होती है, जो एक कार्यकारी विशेषाधिकार (Executive Prerogative) है। कूपर मामले, (1970) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राष्ट्रपति की संतुष्टि पर अदालत में दुर्भावना के आधार पर सवाल उठाया जा सकता है (उदाहरण के लिए जब वह एक सदन या संसद के दोनों सदनों को जानबूझकर सत्रावसान करता है, एक विवादास्पद अध्यादेश प्रख्यापित करने की दृष्टि से, ताकि संसदीय निर्णय को दरकिनार किया जा सके)

  • सीमित उत्तरजीविता (उसे पुनः लागू करने के लिए राष्ट्रपति को उसे 6 माह और 6 सप्ताह के भीतर फिर से जारी करना होता है)। साथ ही राष्ट्रपति इसे कभी भी वापस ले सकते हैं।

राष्ट्रपति की इस ताकत से सम्बंधित मुद्दे:

अलोकतांत्रिक

ऐसी ताकत UK या USA जैसे अधिकांश विकसित देशों में उपलब्ध नहीं है| भारत शायद एकमात्र ऐसा देश है जो कार्यकारी को आकस्मिकताओं (contingencies) को पूरा करने में सक्षम बनाने के लिए यह शक्ति प्रदान करता है।

लोक सभा के नियमों की अपेक्षा है कि जब भी किसी अध्यादेश के स्थान पर कोई विधेयक सदन में पेश किया जाता है, तो उन परिस्थितियों को स्पष्ट करते हुए एक बयान भी सदन के समक्ष रखा जाना चाहिए जिसके कारणवश अध्यादेश द्वारा तत्काल कानून बनाना आवश्यक हो गया था।

डीसी वाधवा मामले (1987) में सुप्रीम कोर्ट का फैसला

उस मामले में, अदालत ने बताया कि 1967-1981 के बीच बिहार के राज्यपाल ने 256 अध्यादेश जारी किए, और ये सभी समय-समय पर पुन: प्रख्यापित करके एक से चौदह वर्ष की अवधि के लिए लागू रखे गए। यह संविधान का उल्लंघन है।

राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति (Pardoning Power of the President)

संविधान का अनुच्छेद 72, राष्ट्रपति को उन व्यक्तियों को क्षमा प्रदान करने का अधिकार देता है, जिन पर मुकदमा चलाया गया है और किसी भी अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है, जहां:

  • सजा किसी केंद्रीय कानून (संघ/union सूची और समवर्ती/concurrent सूची विषयों) के खिलाफ अपराध के लिए है;
  • सजा कोर्ट मार्शल (सैन्य न्यायालय) द्वारा होती है; तथा
  • सजा मौत की सजा है।

राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति न्यायपालिका से स्वतंत्र है; यह एक कार्यकारी शक्ति (executive power) है। लेकिन, राष्ट्रपति इस शक्ति का प्रयोग करते हुए अपील की अदालत (court of appeal) के रूप में नहीं बैठते हैं।

राष्ट्रपति को यह शक्ति प्रदान करने के दो उद्देश्य हैं:

  • कानून के संचालन में किसी भी न्यायिक त्रुटि को ठीक करने के लिए दरवाजा खुला रखना; तथा
  • सजा से राहत देने के लिए, जिसे राष्ट्रपति अनुचित रूप से कठोर मानते हैं।

राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति में निम्नलिखित शामिल हैं: क्षमा (Pardon), रूपांतरण (Commutation), छूट (Remission), राहत (Respite), दण्डविराम (Reprieve)।

सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न मामलों के तहत राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति की जांच की और निम्नलिखित सिद्धांत निर्धारित किए (केहर बनाम यूओआई / Kehar vs. UOI, 1989 में):

  • दया याचिकाकर्ता को राष्ट्रपति द्वारा मौखिक सुनवाई का कोई अधिकार नहीं है
  • राष्ट्रपति सबूतों की नए सिरे से जांच कर सकता है और अदालत द्वारा लिए गए दृष्टिकोण से अलग दृष्टिकोण अपना सकता है।
  • केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा शक्ति का प्रयोग किया जाना है।
  • राष्ट्रपति अपने आदेश के लिए कारण बताने के लिए बाध्य नहीं है।
  • राष्ट्रपति न केवल उस दंड से जिसे वह अनुचित रूप से कठोर मानता है, बल्कि एक स्पष्ट गलती से भी राहत दे सकता है।
  • राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों के प्रयोग के लिए सर्वोच्च न्यायालय को विशिष्ट दिशानिर्देश निर्धारित करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
  • राष्ट्रपति द्वारा शक्ति का प्रयोग न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं है, सिवाय इसके कि जहां राष्ट्रपति का निर्णय मनमाना, तर्कहीन, दुर्भावनापूर्ण या भेदभावपूर्ण हो, यानी राष्ट्रपति द्वारा निर्णय के लिए उपयोग की जाने वाली सामग्री को सवालों के घेरे में लाया जा सकता है।

न्यायिक शक्तियां

राष्ट्रपति की न्यायिक शक्तियाँ और कार्य निम्नलिखित हैं:

(a) वह मुख्य न्यायाधीश, और सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है।

(b) वह कानून या तथ्य के किसी भी प्रश्न (question of law or fact) पर सर्वोच्च न्यायालय से सलाह ले सकता है। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई सलाह राष्ट्रपति पर बाध्यकारी नहीं है।

(c) वह सजा की माफी, राहत और छूट दे सकता है, या सजा को निलंबित, हटा या कम कर सकता है।

आपातकालीन शक्तियां

संविधान में इस प्रावधान को शामिल करने के कारण:

  • अद्वितीय परिस्थितियां जिनमें भारत का जन्म हुआ।

  • ऐतिहासिक अनुभव।

राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352)

इसे बाहरी आक्रमण, युद्ध या सशस्त्र विद्रोह के आधार पर लगाया जा सकता है।

अनुच्छेद 352 के संभावित दुरुपयोग के खिलाफ सुरक्षा उपाय:

इनमें से अधिकांश सुरक्षा उपाय 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़े गए थे।

  • "आंतरिक अशांति" वाक्यांश को "सशस्त्र विद्रोह" से बदल दिया गया था।

  • कैबिनेट से लिखित सलाह लेनी होगी।

  • राष्ट्रीय आपातकाल को संसद की पुन: सभा (reassembly) के एक महीने के भीतर मंजूर करना होता है (पहले यह दो महीने था)। विशेष बहुमत से पारित होने की आवश्यकता है (पहले यह साधारण बहुमत था)। एक बार में केवल छह महीने के लिए बढ़ाया जा सकता है (पहले यह एक साल था)।

  • यदि लोकसभा के 1/10 सदस्य नोटिस देते हैं, तो 14 दिनों के भीतर एक विशेष सत्र आयोजित करना होगा जो आपातकाल की निरंतरता को अस्वीकार कर सकता है।

पुंची आयोग (Punchi commission) की सिफारिश: इसने स्थानीय आपातकाल की सिफारिश की, जो उस समस्या से निपटने के लिए राज्य सरकार को शक्ति प्रदान करता है। केंद्र सरकार की विस्तारित/बढ़ी हुई भूमिका होगी, लेकिन आधिकारिक भूमिका (authoritative role) राज्य सरकार की होगी।

संवैधानिक आपातकाल / राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356)

यह तब लगाया जा सकता है जब सरकार एक रिपोर्ट देती है या जब मंत्रिपरिषद को लगता है कि राज्य मशीनरी संवैधानिक रूप से काम नहीं कर रही है।

अनुच्छेद 356 सबसे अधिक दुरूपयोग होने वाला अनुच्छेद है, जिसने केंद्र के एजेंट के रूप में राज्यपालों की भूमिका को अस्वास्थ्यकर तरीके से दिखाया। समस्या की शुरुआत का पता 1967 से लगाया जा सकता है, जो भारतीय राजनीति में बड़े विभाजन का वर्ष (year of great divide in Indian politics) था।

सरकारिया आयोग (Sarkaria commission) की टिप्पणियां:

  • 13 मामलों में अनुच्छेद 356 लगाया गया था, भले ही राज्य मंत्रालय को राज्य विधायिका का विश्वास प्राप्त था। साथ ही, कम से कम 15 मामलों में अन्य दावेदारों को वैकल्पिक सरकार बनाने का अवसर नहीं दिया गया।

  • 1977 - जनता पार्टी सरकार ने कांग्रेस शासित राज्यों के सभी नौ मुख्यमंत्रियों को बर्खास्त कर दिया।

  • 1980- इंदिरा गांधी ने जनता पार्टी के नौ मुख्यमंत्रियों को बर्खास्त किया।

अनुच्छेद 356 से संबंधित प्रमुख समस्याएं:

  • अभिव्यक्ति "संवैधानिक तंत्र का टूटना (breakdown of constitutional machinery)" को संविधान में परिभाषित नहीं किया गया है, जिसके कारण अनुच्छेद 356 को समान स्थितियों में अलग-अलग तरह से लागू किया गया है। केंद्र सरकार की सुविधा के आधार पर विधानसभाओं को भंग या निलंबित कर दिया जाता है। अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल अक्सर केंद्र सरकार की पार्टी के अलावा अन्य पार्टियों द्वारा चलाई जा रही सरकारों को हटाने के लिए किया जाता है।

  • कई मौकों पर विपक्षी दलों को वैकल्पिक सरकार बनाने का मौका नहीं दिया गया।

  • केंद्र सरकार के कहने पर राज्यपाल की रिपोर्ट से छेड़छाड़।

सरकारिया आयोग की सिफारिशें:

  • अनुच्छेद 356 को अंतिम उपाय के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

  • लागू करने से पहले राज्य सरकार को चेतावनी दी जाए।

  • कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी के मामले में, स्थिति को नियंत्रित करने के लिए अनुच्छेद 355 के तहत संघ के पास उपलब्ध वैकल्पिक तरीकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

  • सरकार को वैकल्पिक सरकार बनाने की सभी संभावनाएं तलाशनी चाहिए। यदि नए चुनाव अपरिहार्य हैं, तो कार्यवाहक सरकार का गठन किया जाना चाहिए।

  • लागू करने के संसदीय अनुसमर्थन से पहले राज्य विधायिका को भंग नहीं किया जाना चाहिए।

  • आम तौर पर राज्यपाल की रिपोर्ट पर ही संवैधानिक आपातकाल लगाया जाना चाहिए, और उस दस्तावेज में इसके पीछे के कारण साफ़-साफ़ लिखे होने चाहियें और इसका व्यापक प्रचार होना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट की राय (SR Bommai / एसआर बोम्मई बनाम UOI, 1994 में):

  • राष्ट्रपति की उद्घोषणा न्यायिक समीक्षा के अधीन है।

  • राज्य सरकार को केवल इस आधार पर बर्खास्त नहीं किया जा सकता है कि राज्य की सत्ताधारी पार्टी को लोकसभा चुनावों में भारी हार का सामना करना पड़ा है।

  • अगर कोई राज्य सरकार धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ काम करती है तो उसे बर्खास्त किया जा सकता है|

  • राष्ट्रपति शासन लागू करना और विधानसभा भंग होना (dissolution of the assembly) एक साथ नहीं हो सकता।

  • अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शक्ति एक संवैधानिक शक्ति है न कि पूर्ण शक्ति। इसलिए, भौतिक साक्ष्य का अस्तित्व अनुच्छेद 356 को लागू करने की पूर्व शर्त है।

  • सुप्रीम कोर्ट, यह सुनिश्चित करने के लिए भौतिक साक्ष्य की जांच कर सकता है कि क्या यह प्रासंगिक था।

  • अगर राष्ट्रपति शासन थोपना अनुचित पाया जाता है, तो सुप्रीम कोर्ट यथास्थिति बहाल कर सकती है।

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, अनुच्छेद 356 निम्नलिखित आधारों पर नहीं लगाया जा सकता है:

  • सिर्फ कुशासन या राज्य सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों के आधार पर।

  • जब सरकार, राज्य सरकार के इस्तीफा देने के बाद वैकल्पिक सरकार स्थापित करने की संभावना तलाशे बिना अनुच्छेद 356 की सिफारिश करती है।

  • जहां कोई फ्लोर टेस्ट नहीं हुआ है और सरकार अपने व्यक्तिपरक मूल्यांकन पर अनुच्छेद 356 की सिफारिश करती है।

  • जहां राज्य सरकार को कोई पूर्व चेतावनी नहीं दी गई है।

  • अगर राज्य में विकट वित्तीय समस्याएं हैं।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुच्छेद 356 के उपयोग के लिए सुझाए गए अवसर:

  • अनुच्छेद 365 के तहत - केंद्र सरकार के निर्देशों का पालन करने में राज्य सरकार की विफलता।

  • जहां कोई मंत्रालय बहुमत खोने के बाद इस्तीफा दे देता है और कोई अन्य सरकार नहीं बन सकती है, अनुच्छेद 356 लगाया जा सकता है और वैकल्पिक सरकार की संभावना का पता लगाने के लिए विधानसभा को निलंबित रखा जा सकता है।

संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग (National commission to review the working of the Constitution) की सिफारिशें, एमएन वेंकटचेलैया / MN Venkatachelaiah द्वारा जोड़ा गया:

  • उद्घोषणा का उपयोग करने से पहले, केंद्र सरकार को राज्य सरकार को उन मामलों को इंगित करना चाहिए जहां राज्य संविधान के प्रावधानों के अनुसार कार्य नहीं कर रहा है और उसे अपने व्यवहार को सही करने का उचित अवसर देना चाहिए।

  • उद्घोषणा में परिस्थितियों और थोपने के आधारों को सूचीबद्ध करने वाला एक अनुलग्नक (annexure) होना चाहिए।

  • विधानसभा भंग करने या निलंबित रखने के आधार का भी उल्लेख किया जाना चाहिए।

  • फ्लोर टेस्ट अनिवार्य किया जाए।




राष्ट्रपति की सक्रियता (Presidential activism)

राष्ट्रपति के कार्य जो उनकी सक्रियता को दर्शाते हैं:

  • कभी-कभी मंत्रिपरिषद को सलाह वापस करना सक्रियता नहीं है, लेकिन अगर ऐसा बार-बार किया जाए तो यह सक्रियता है।

  • अगर सरकार से लगातार जानकारी मांग रहे हों।

  • राष्ट्रपति की नीति सक्रियता (Policy activism ). उदाहरण के लिए, अब्दुल कलाम द्वारा - PURA, भारत निर्माण (Bharat Nirman), पैन-अफ्रीका कनेक्टिविटी नेटवर्क (Pan-Africa connectivity network)। यदि राष्ट्रपति के पास कुछ नीतिगत योजनाएँ हैं, तो उन्हें मीडिया में इसे उजागर करने के बजाय पहले प्रधान मंत्री के साथ इस पर चर्चा करनी चाहिए।

परम्पराएं (Conventions) जो समय के साथ बनी हैं:

  • राष्ट्रपति सीमित तरीके से सरकार के बिलों, नियुक्तियों और नीतियों पर सवाल उठाने के हकदार हैं।

  • सीमा के भीतर राष्ट्रपति राज्य के मामलों पर टिप्पणी कर सकते हैं, लेकिन सरकार की आलोचना मौन होनी चाहिए, नाकि अलार्म बजाने की प्रकृति में।

  • राष्ट्रपति को निजी तौर पर प्रधानमंत्री को नसीहत देने का अधिकार है।

  • अनुच्छेद 78 के तहत राष्ट्रपति के जानने का अधिकार निरंकुश है।

  • न केवल विपक्षी दल, बल्कि राज्य के मुख्यमंत्री (state chief ministers) भी संविधान के संरक्षक के रूप में राष्ट्रपति के नैतिक अधिकार का आह्वान कर सकते हैं।

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