प्रशासनिक व्यवस्था को प्रभावित करने वाले ऐतिहासिक और सामाजिक कारक (Historical and Sociological factors affecting Administrative systems)

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प्रशासनिक व्यवस्था को प्रभावित करने वाले ऐतिहासिक और सामाजिक कारक (Historical and Sociological factors affecting Administrative systems)

Overview

इस लेख में हम UPSC परीक्षा से सम्बंधित, लोक प्रशासन (Public Administration) के एक महत्पूर्ण विषय पर प्रकाश डालेंगे - प्रशासनिक व्यवस्था को प्रभावित करने वाले ऐतिहासिक और सामाजिक कारक (Historical and Sociological factors affecting Administrative systems), in Hindi

ब्रिटिश काल की भारतीय सिविल सेवा

ब्रिटिश काल की भारतीय सिविल सेवा एक सजातीय, सामान्यवादी और गैर-तकनीकी प्रकृति की अखिल भारतीय सेवा थी|

भारत में औपनिवेशिक प्रशासन प्रकृति में सत्तावादी, पितृसत्तात्मक, निवारक और दमनकारी था और मूल रूप से गैर-विकासशील था। प्रशासकों का मुख्य कार्य कानून व्यवस्था बनाए रखना और राजस्व संग्रह करना था।

नौकरशाह, औपनिवेशिक समाज में एक विशेष रूप से विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग होने के कारण, धीरे-धीरे रूढ़िवादी, कठोर और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के सबसे बड़े समर्थक बन गए। उन्हें लोगों के प्रति जवाबदेही की किसी भी संस्थागत प्रणाली के बिना, काफी परिचालन स्वायत्तता (operational autonomy) दी गयी थी।

स्वतंत्रता के बाद भारतीय सिविल सेवा में आया परिवर्तन

स्वतंत्रता के बाद संविधान में परिकल्पित लोकतांत्रिक समाजवादी लोकाचार को शामिल करने के लिए राष्ट्रीय परिदृश्य में जबरदस्त बदलाव आया। लोकतंत्र में संसद, मंत्रियों, चुनावों और राजनीतिक दलों के साथ-साथ, लोक सेवकों की सार्वजनिक जवाबदेही की अवधारणा भी अवतरित हुई|

नौकरशाही कार्यों की प्रकृति भी विविधता, बहुलता और अभिविन्यास में पूरी तरह से बदल गई। निवारक कार्यों (preventive functions) से ज्यादा सेवा और विकासोन्मुखी कार्यों पर जोर दिया जाने लगा।

स्वतंत्रता के समय हमने संवैधानिक रूप से एक लोकतांत्रिक सामाजिक कल्याणकारी राज्य (democratic social welfare state) के लक्ष्य को अपनाया था। इस ढांचे में लोक नौकरशाही (public bureaucracy) को परिवर्तन और आधुनिकीकरण के मुख्य एजेंट के रूप में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी थी।

सरकार ने नई योजनाओं और कार्यक्रमों को लागू करने के लिए पारंपरिक नौकरशाही (जो राष्ट्र को ब्रिटिश औपनिवेशिक काल से विरासत में मिली थी) पर भरोसा करते हुए लोकतांत्रिक साधनों के माध्यम से नियोजित विकास के एक महत्वाकांक्षी मॉडल पर काम की शुरुआत की। हालांकि आजादी के बाद के शासकों ने पुरानी नौकरशाही को संदेह की नजर से देखा, लेकिन उन्होंने प्रशासन के पुराने ढांचे को जहां तक आवश्यक हो, थोड़े-बहुत बदलाव के साथ बरकरार रखा।

ब्रिटिश काल के विपरीत अब नौकरशाही जनता के प्रतिनिधियों द्वारा निर्देशित और नियंत्रित होती है। राजनीतिक तत्व सार्वजनिक कार्यान्वयन को निर्धारित करते हैं। सार्वजनिक नीति निर्माण में राजनीतिक तत्व की सर्वोच्चता का अर्थ यह है कि नीति की उत्पत्ति का स्रोत जो भी हो, उसकी अंतिम जिम्मेदारी राजनीतिक प्रमुख पर होती है कि वह विधायिका में नीति की वकालत करे और उसका लेखा-जोखा रखे।

भारत में नौकरशाही के लिए चुनौती राजनीतिक नेतृत्व की सर्वोच्चता को स्वीकार करना और उसे पूरा सहयोग देना है। क्षेत्र में काम कर रहे भारतीय नौकरशाहों को लगता है कि लोगों और प्रशासन के अपने घनिष्ठ ज्ञान के साथ उन्हें कानूनों की व्याख्या करने का अधिकार है, जैसा वे उचित समझते हैं। राजनेता नौकरशाहों पर कठोर होने और प्रगतिशील समाजवादी कानूनों के कार्यान्वयन को अवरुद्ध करने का आरोप लगाते हैं। नौकरशाहों ने सिविल सेवा नियुक्तियों, ट्रांसफॉर्मर, पदोन्नति, आदि के मामलों में प्रशासन और उनकी शक्ति के राजनीतिकरण को बढ़ाने में उत्तरार्द्ध की भूमिका का विरोध किया, क्यूंकि इसके कारण सिविल सेवकों की ओर से अपने स्वामी को खुश करने के लिए चटुकारिता और अनुपालन में वृद्धि हुई है।

राजनीतिक-प्रशासनिक संबंधों की एक अन्य विवादास्पद विशेषता सिविल सेवा की तटस्थता (neutrality) है। नौकरशाही की पारंपरिक अवधारणा की विशिष्ट विशेषताओं में से एक इसकी तटस्थता है। पश्चिमी समाजों में एक प्रतिस्पर्धी पार्टी प्रणाली के साथ उदार लोकतंत्र में सिविल सेवा ने अपनी तटस्थता (neutrality) और गुमनामी (anonymity) बरकरार रखी। एक ऐसे समाज में मूल्य-मुक्त तटस्थ नौकरशाही (value-free neutral bureaucracy) संभव थी जहां मूल्यों पर आम सहमति थी; लेकिन हमारे जैसे संक्रमणकालीन वर्ग-विभाजित समाजों में जहां मूल्यों पर कोई सहमति नहीं है, नौकरशाही के लिए निष्पक्ष, तटस्थ या मूल्य-मुक्त तरीके से कार्य करना न तो वांछनीय है और न ही संभव है। राजनीतिक मुद्दों पर विचारों में व्यापक अंतर के साथ सभी प्रकार के राजनीतिक दल हैं। सिविल सेवकों के लिए अपने स्वयं के राजनीतिक विचार और प्राथमिकताएं होना शायद ही आश्चर्यजनक है, जो कभी-कभी, उनके दृष्टिकोण में अपरिहार्य राजनीतिक पूर्वाग्रह (political bias) का कारण बन सकता है।

क्या निष्पक्ष (impartial), निष्क्रिय (passive), और अलग-थलग पड़े (detached) सिविल सेवकों की विकास कार्यक्रमों के साथ अपेक्षित भावनात्मक भागीदारी हो सकती है, जो उनकी सफलता के लिए एक आवश्यक शर्त है?

एक आधुनिक प्रशासक के लिए अन्य आवश्यक गुण दूरदर्शिता, लचीलापन, गतिशीलता, और परिणामोन्मुखता (result orientedness) हैं। एक स्थिर समाज में पुरानी संरचना अच्छा प्रदर्शन कर सकती है। परन्तु यदि सिविल सेवा को विकासशील समाज में परिवर्तन और प्रगति के एक प्रभावी साधन के रूप में काम करना है, तो उसे आमूल-चूल, संरचनात्मक, प्रक्रियात्मक और व्यवहारिक परिवर्तनों से गुजरना होगा। सिविल सेवा को लोकप्रिय जरूरतों और आकांक्षाओं के प्रति अधिक जागरूकता और जवाबदेही पैदा करनी होगी। हमारे देश में प्रशासनिक संस्कृति और लोकाचार (administrative culture and ethos) ने स्वतंत्रता के बाद लोकप्रिय अपेक्षाओं के अनुरूप बदलाव नहीं करा है। नौकरशाही की संगठनात्मक संरचना और सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि काफी हद तक वही है जो ब्रिटिश दिनों के दौरान थी, सिवाय इसके कि लोक प्रशासन की ताकत और कार्यों में काफी वृद्धि हुई है।

एक लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का एक और निहितार्थ यह है कि नौकरशाही को अपनी विशिष्टता (exclusiveness), आरक्षित (reserve), और कार्य करने की सत्तावादी शैली (authoritarian style) को छोड़ देना चाहिए और लोगों के करीब आना चाहिए। लोगों को अपनी ओर से नौकरशाही विरोधी रुख को छोड़ देना चाहिए और प्रशासनिक और राजनीतिक गतिविधियों के सभी स्तरों पर भाग लेने के लिए अधिक झुकाव रखना चाहिये, यदि वे लोकतांत्रिक सरकार और प्रशासन का पूरा लाभ प्राप्त करना चाहते हैं। नागरिक और प्रशासक के बीच संबंध आपसी सद्भावना और विश्वास पर आधारित होना चाहिए।

भारत में सार्वजनिक पूछताछ और छानबीन में सार्वजनिक सेवाओं में व्यापक भ्रष्टाचार का अक्सर पता चलता है। सिविल सेवकों का आरोप है कि राजनीतिक हस्तक्षेप और सेवाओं के बढ़ते राजनीतिकरण के परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार एक दुर्भाग्यपूर्ण उपोत्पाद है। भ्रष्टाचार का मुद्दा विकराल रूप धारण कर चुका है और प्रशासनिक व्यवस्था पर एक बड़ा कलंक है।

अक्सर यह कहा जाता है कि यह ब्रिटिश काल की तुलना में हमारी सिविल सेवा की अखंडता और आचरण के गिरते मानकों का एक सामान्य प्रतिबिंब है। हालांकि, Bhambhri/भांबरी के अनुसार यह पूरी तरह सच नहीं हो सकता। जरूरी नहीं कि ब्रिटिश भारतीय सिविल सेवा की सत्यनिष्ठा और नैतिक मानक हर दृष्टि से उच्च रहे हों। ब्रिटिश काल में भी भ्रष्टाचार व्याप्त था; हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रशासन पर लोक नियंत्रण ने केवल भ्रष्टाचार को उजागर करने में मदद की है, जितना कि ब्रिटिश शासन के दौरान संभव नहीं था।

फैरेल हेडी (Farrell Heady) ने विकासशील देशों की कुछ सामान्य ऐतिहासिक विरासतों पर चर्चा की है जो उनकी वर्तमान प्रशासनिक प्रणालियों की विशिष्ट विशेषताओं में परिलक्षित होती हैं। ये इस प्रकार हैं:

  1. पश्चिमी उपनिवेशवाद से बचे रहने वाले देशों सहित, सभी देशों ने जानबूझकर आधुनिक पश्चिमी नौकरशाही प्रशासन के किसी-न-किसी संस्करण को अपनाने का प्रयास किया है। एक ऐसे देश में जो पहले एक उपनिवेश (colony) था, उसका प्रशासन लगभग निश्चित रूप से उपनिवेशवादियों (colonizer) के समान होगा।

  2. ये नौकरशाही उत्पादन उन्मुख (production oriented) नहीं हैं। उपलब्धि (achievement) के बजाय पैदाइशी स्तिथि (ascription) के आधार पर मूल्य आंकलन इस व्यवहार का जनक है। गैर-योग्यता सम्बंधित चीज़ें पदोन्नति, असाइनमेंट, बर्खास्तगी, और अन्य कार्मिक प्रथाओं को बहुत प्रभावित करती हैं। भ्रष्टाचार व्यापक होता है।

  3. वास्तविकता और कागज़ के बीच व्यापक विसंगति को रिग्स/Riggs ने 'औपचारिकता (formalism)' कहा है। यह चीजों को वैसा ही बनाने की इच्छा को दर्शाता है जैसा कि उन्हें वास्तव में होना चाहिए (ought to be), बजाय इसके कि वे वास्तव में क्या हैं (what they really are)। सरकारी प्रस्तावों और उनके कार्यान्वयन के बीच एक व्यापक अंतर होता है, अधिकांश कानूनों की अनदेखी होती है, या वह बिल्कुल भी लागू नहीं होते हैं।

  4. एक विकासशील देश में नौकरशाही के पास काफी परिचालन स्वायत्तता (operational autonomy) होती है, जिसे हाल ही में स्वतंत्र हुए और आधुनिकीकरण करने वाले राष्ट्र में आमतौर पर काम करने वाली कई ताकतों के अभिसरण (convergence) द्वारा समझा जा सकता है।

  5. उपनिवेशवाद अनिवार्य रूप से दूरस्थ स्रोतों से नीति मार्गदर्शन के साथ नौकरशाही द्वारा शासित था, और यह पैटर्न स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहा। राजनीतिक प्रभाव के लिए प्रतिस्पर्धा करने वाले या नौकरशाही पर करीबी नियंत्रण लगाने में सक्षम समूह कम ही हैं, जिस कारणवश अक्सर नौकरशाही आंशिक शक्ति शून्य (power vacuum) में चली जाती है।

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